स्वतंत्र विनियामकीय संस्थाओं का महत्व – केंद्रीय बैंक का मामला - डॉ. विरल वी. आचार्य, उप गवर्नर, भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा मुंबई में 26 अक्तूबर 2018 को दिया गया ए. डी. श्रॉफ स्मारक व्याख्यान - आरबीआई - Reserve Bank of India
स्वतंत्र विनियामकीय संस्थाओं का महत्व – केंद्रीय बैंक का मामला - डॉ. विरल वी. आचार्य, उप गवर्नर, भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा मुंबई में 26 अक्तूबर 2018 को दिया गया ए. डी. श्रॉफ स्मारक व्याख्यान
डॉ. विरल वी. आचार्य, उप गवर्नर, भारतीय रिज़र्व बैंक
उद्बोधन दिया
कोई भी समरूपता पूर्ण नहीं होती है; फिर भी, समरूपताओं के जरिए बातों को बेहतर ढंग कहने में मदद मिलती है। कई बार, मामूली आदमी भी व्यवहारिक और यहां तक कि अकादमिक बात भी सारगर्भित तरीके से कह देता है। लेकिन, संप्रेषणकर्ता के कार्य को आसान बनाने के उदाहरण असल जीवन में कभी-कभार ही सुंदरता के साथ आते हैं। मैं 2010 की एक घटना के साथ अपनी बात शुरू करता हूं क्योंकि यह मेरे वक्तव्य के विषय के लिए सर्वथा उपयुक्त हैः “इस केन्द्रीय बैंक में मेरा समय पूरा हुआ और यही कारण है कि मैंने अपने कर्तव्यों को निभाने की संतुष्टि के साथ अपने पद को निश्चित रूप से छोड़ने का निर्णय ले लिया है”, यह बात अर्जेंटिना के केंद्रीय बैंक के प्रमुख श्री मार्टिन रेडरेडो ने शुक्रवार, 29 जनवरी 2010 को समाचार सम्मेलन में कही। उन्होंने कहा कि “अपनी राष्ट्रीय सरकार द्वारा संस्थाओं के स्थायी दमन के कारण हम इस स्थिति में पहुंच गए हैं”। “मूल रूप से, मैं दो मुख्य अवधारणों का बचाव कर रहा हूं: एक हमारे निर्णय लेने की प्रक्रिया में केंद्रीय बैंक की स्वतंत्रता और यह कि आरक्षित निधियों का उपयोग मौद्रिक और वित्तीय स्थिरता के लिए होना चाहिए।” इस नाटकीय प्रस्थान की जड़ें हैं क्रिस्टिना फर्नांडिज के नेतृत्व वाली अर्जेंटीना सरकार द्वारा 14 दिसंबर 2009 को पारित उस आपात आदेश में जिसके अनुसार उस वर्ष परिपक्व हो रहे लोक ऋणों का वित्तपोषण करने के लिए द्विशताब्दिक स्थायित्व और न्यूनकृत ऋणग्रस्तता निधि की स्थापना की जा रही थी। इसमें केंद्रीय बैंक की आरक्षित निधियों में से 6.6 बिलियन डॉलर की रकम को नेशलन ट्रेजरी में अंतरित करना निहित था। दावा यह था कि केंद्रीय बैंक के पास 18 बिलियन डॉलर की अतिरिक्त आरक्षित निधि थी। [वास्तव में, श्री रेडराडो ने यह निधि अंतरित करने से मना कर दिया था, इसलिए सरकार ने दुराचार और कर्तव्यभंग के लिए 7 जनवरी 2010 के एक और आपात आदेश द्वारा उन्हें पद से हटाने का प्रयास किया, तथापि, यह प्रयास विफल हो गया क्योंकि यह असंवैधानिक था।] सन 2001 में अर्जेंटिना की आर्थिक मंदी के बाद वहां के सबसे बुरे संवैधानिक संकट को चिंगारी दिखाने के अलावा इस घटनाक्रम से वहां के राष्ट्रिक जोखिम का गंभीर पुनर्आकलन हुआ। श्री रेडराडो के त्यापत्र के एक महीने के अंदर, अर्जेंटिना के सॉवरेन बॉन्ड प्रतिफल और अर्जेंटिना सरकार के बॉन्डों (सॉवरेन क्रेडिट डिफॉल्ट स्वैप स्प्रैड द्वारा आकलित) के डिफॉल्ट से हुई हानि से बचाव का बीमा कराने के लिए वार्षिक प्रीमियम लागत लगभग 2.5 प्रतिशत या 250 आधार अंकों तक बढ़ गई जो इसके पिछले स्तरों का चौथाई गुना था। गोल्डमैन साक्स में अर्जेंटिना के विश्लेषक अलबेर्टो रेमोस ने 7 फरवरी 2010 को यह कहा कि “सरकारी देनदारियों का भुगतान करने के लिए केंद्रीय बैंक की आरक्षित निधियों का उपयोग करना कोई सकारात्मक गतिविधि नहीं है और आरक्षित निधियों के आधिक्य का विषय तो निश्चित रूप से बहस के लिए खुला है। इससे केंद्रीय बैंक का तुलनपत्र कमजोर हो जाता है और सरकार को गलत प्रोत्साहन मिलता है, क्योंकि इससे खर्च के तेज विस्तार को नियंत्रित करने का प्रोत्साहन कमजोर होता है और 2010 में राजकोषीय खातों में कुछ समेकन को बढ़ावा मिला”। इससे भी अधिक क्षति यह हुई कि गवर्नर रेडराडो ने जो चेतावनी दी थी वह जोखिम लगभग सामने आ गया। जनवरी 2010 की शुरुआत में ही थॉमस ग्रेसा, न्यूयॉर्क न्यायाधीश ने फेडरल रिज़र्व बैंक ऑफ न्यूयॉर्क में अर्जेंटिना के केंद्रीय बैंक के खाते को बंद कर दिया क्योंकि निवेशकों ने यह दावा किया था कि अब केंद्रीय बैंक स्वायत्त एजेन्सी नहीं रह गया है बल्कि यह देश की कार्यपालिका के अधीन हो गया है। (उपर्युक्त सारांश आंशिक रूप से अर्जेंटिना के केंद्रीय बैंक प्रमुख के त्यागपत्र पर आधारित है, ज्यूड वेबर, फाइनैंशियल टाइम्स, 30 जनवरी 2010, और अर्जेंटिनाः रेडराडो का प्रस्थान बैंक स्वतंत्रता दाव पर, जैसन मिशैल, यूरोमनी, 7 फरवरी 2010) सरकार द्वारा अपनी शक्तियों के उपयोग, केंद्रीय बैंकर के निकास और बाजार के विद्रोह की जटिल परस्परिक क्रिया आज के मेरे वक्तव्य का केंद्र-बिंदु होगी कि किस प्रकार से सुचारु रूप से चलने वाली अर्थव्यवस्था के लिए एक स्वतंत्र केंद्रीय बैंक अर्थात सरकार की कार्यपालिका से मुक्त स्वतंत्र केंद्रीय बैंक महत्वपूर्ण है। मैं यह भी प्रस्तुत करने का प्रयास करूंगा कि किस प्रकार से केंद्रीय बैंक की स्वतंत्रता को दबाने के जोखिम संभाव्य रूप से आफत भरे हो सकते हैं, एक प्रकार का “स्व-लक्ष्य” है क्योंकि इससे पूंजी बाजारों में विश्वास का संकट उत्पन्न हो सकता है जिन बाजारों का उपयोग सरकार (और अर्थव्यवस्था में अन्य) द्वारा वित्त को चलाने के लिए किया जाता है। देश सफल (या विफल) क्यों होते हैं इस जटिल परस्पर क्रिया की बात करने से पहले, मैं अधिक सामान्य संदर्भ में केंद्रीय बैंक की स्वतंत्रता की बात करना चाहूंगा। राजनीतिक अर्थशास्त्रियों के अकादमिक संभाषण में देशों को विकसित करने में सरकारों की जवाबदेही और विधि-विधान द्वारा निभाई गई मुख्य भूमिका को मान्यता दी जाती है। फ्रांसिस फुकुयामा (दि ओरीजिन ऑफ पोलिटिकल आर्डर, 2011) ने राज्य और संस्था के पर्याप्त निर्माण के साथ इन दो तत्वों पर विचार किया है क्योंकि लोकतांत्रिक विकास या अन्य शब्दों में स्थिर, शांत, समृद्ध, समावेशी और ईमानदार समाज का सृजन करने के लिए सभी चीजें महत्वपूर्ण हैं। डेरोन ऐचेमोग्लू और जेम्स रोबिन्सन (ह्वाइ नेशन्स फेल, 2012) राज्यों की राजनीतिक और आर्थिक सफलता या विफलता को स्पष्ट करने में संस्थाओं की गुणवत्ता के महत्व पर अपने कार्य का सारांश प्रस्तुत करते हैं। जुड़वां देशों वृतांत अध्ययन (जैसे कि दक्षिण कोरिया और उत्तरी कोरिया) से उदाहरण लेते हुए, यह पुस्तक निम्नलिखित महत्वपूर्ण अंतर को विस्तार से बताती हैः - समावेशी आर्थिक और राजनीतिक संस्थाओं में निर्णय-निर्धारण में बहुलता शामिल होती है जो विधि-विधान की गारंटी देता है और प्रतिभा व सृजनशीलता को बढ़ावा देता है। ऐसी संस्थाओं की मौजूदगी में अर्थव्यवस्था और राजनीति कुछ ऐसे पदधारियों के समूह की बंधक नहीं बनती है, जहां परिवर्तन से आहत होने की संभावना होती है। - इसके विपरीत, मालगुजारी वसूलने वाले संस्थान किसी देश के आर्थिक और वित्तीय संसाधनों तक केवल सत्ताधारी कुलीन वर्ग को ही पहुंचने देते हैं, बदलाव और नवोन्मेष को रोकते हैं और कुछ ही समय में इससे ठहराव आ जाता है तथा देश की क्षमता का अपकर्ष होता है। न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी के स्टर्न स्कूल ऑफ बिजनेस (एनवाईयू स्टर्न) के पुराने सहकर्मियों के साथ चर्चाओं में अर्थव्यवस्थाओं को या तो मूल्य सृजन हेतु प्रोत्साहक और समर्थक के रूप में श्रेणीबद्ध करने का चलन था, जिनमें उद्यमी विश्वास करते थे कि सफलता का मंत्र रूढि़यों को चुनौती देने से स्थापित होता है, या मालगुजारी वसूलने के रूप में, जहां कारोबारियों को प्रतिगामी सरकारी नीतियों के साथ हाथ मिलाकर काम करने में ही प्रथमतया मुनाफा दिखाई देता है और जो यह सुविधा नहीं ले पाते वे दूर ही रह जाते हैं। संस्थाओं महत्व के लिए अधिमान्य सिद्धांत और शब्दावली पर ध्यान दिए बिना, यह तो सर्वमान्य है कि एक लोकतंत्र में इनमें अन्य बातों के साथ-साथ संपत्ति के अधिकारों और इनके प्रवर्तन, न्यायप्रणाली और निर्वाचन कार्यालय को शामिल किया जाता है, जो केवल कानूनी तौर पर स्थापित ही नहीं कर दिए जाते हैं, बल्कि इन्हें वस्तुत: स्वतंत्र रूप से परिचालन और प्रभावशाली ढ़ंग से कार्य करने की अनुमति होती है। स्वतंत्र केंद्रीय बैंक के तौर पर जो संस्था है वह कुछ कम प्रख्यात है, केवल इसलिए नहीं है कि इस ब्लॉक में केंद्रीय बैंक तुलनात्मक रूप से एक शिशु ही है (अधिकांश मामलों में एक सदी से भी कम पुराना), बल्कि यह आम जनता से भी सीधे-सीधे कम ही जुडता है, हालांकि सच में इसका प्रभाव दूरगामी होता है। सरकार और केंद्रीय बैंक – दो क्षितिजों की कहानी केंद्रीय बैंक अर्थव्यवस्था के अनेक महत्वपूर्ण कार्य करता हैः यह मुद्रा आपूर्ति को नियंत्रित करता है, पैसा उधार लेने और देने की ब्याज दरें निर्धारित करता है, विनिमय दर सहित बाह्य क्षेत्र का प्रबंधन करता है, वित्तीय क्षेत्र, विशेषकर बैंकों का पर्यवेक्षण और विनियमन करता है, यह प्रायः क्रेडिट और विदेशी मुद्रा बाजारों को विनियमित करता है तथा घरेलू और बाह्य मोर्चे पर वित्तीय स्थिरता सुनिश्चित करने का प्रयास करता है। विश्व भर में, केंद्रीय बैंक को सरकार से अलग संस्था के रूप में स्थापित किया गया है; दूसरे शब्दों में, यह सरकार की कार्यपालिका का कोई विभाग नहीं है; इसकी शक्तियों को संगत विधान के माध्यम से अलग से प्रतिष्ठापित किया गया है। इसका कार्य कुछ जटिल और तकनीकी है, केंद्रीय बैंक के प्रमुख पद पर प्रविधि-विशेषज्ञ या इस क्षेत्र के विशेषज्ञ रहते हैं – जो विशिष्टतया अर्थशास्त्रियों, शिक्षाविदों, वाणिज्यिक बैंकरों और कभी-कभी निजी क्षेत्र के प्रतिनिधियों में से लिए जाते हैं, जिनकी नियुक्ति सरकार द्वारा की जाती है किंतु इन्हें पद हेतु निर्वाचित नहीं किया जाता है। यह संरचना इस थीसिस की स्वीकृति को प्रकट करती है कि केंद्रीय बैंक को अपनी शक्तियों का स्वतंत्र रूप से प्रयोग करने की अनुमति होनी चाहिए। केंद्रीय बैंक सरकार से अलग क्यों है? मैं वह बताऊंगा जिसे मैं विशेषरूप से सहज स्पष्टीकरण के रूप में देखता हूं: (1) इस स्पष्टीकरण के पहले भाग का संबंध केंद्रीय बैंक द्वारा निर्णय लेने की तुलना में सरकार के निर्णयों से है। कई लिहाज से, सरकार के नीति निर्माण का क्षितिज छोटा प्रतीत होता है जैसे कि एक टी-20 मैच (क्रिकेट के उपमान से देखें तो) का होता है। हमेशा किसी न किसी प्रकार के चुनाव – राष्ट्रीय, राज्य, मध्यावधि, आदि आते रहते हैं। जैसे ही चुनाव नजदीक आने को होते हैं, तो पूर्ववर्ती घोषणा-पत्र की बातों को आनन-फानन में पूरा करने की जरूरत होती है, जहां घोषणापत्र की बातों को पूरा नहीं किया जा सकता है, वहां लोक-लुभावने विकल्पों को फौरन अपनाने की जरूरत होती है। वर्तमान परिदृश्य में कम महत्वपूर्ण किंतु अभी हाल ही में कुछ यह भी हो गया है कि युद्ध छेड़ना है, उसे वित्तपोषित करना और किसी भी कीमत पर जीतना भी है। सरकारों की इस अदूरदर्शिता या लघु आवधिकता को इतिहास में लुइस XV द्वारा बेहतर ढ़ंग से संक्षेप में प्रस्तुत किया गया जब उसने कहा “Apres moi, le deluge” (मेरे बाद जलप्रलय)।2 इसके विपरीत, केंद्रीय बैंक टेस्ट मैच खेलता है, जिसमें वह प्रत्येक सत्र में जीतने का प्रयास करता है किंतु महत्वपूर्ण बात यह कि वह इसमें बना भी रहता है, ताकि अगला सत्र और इसके बाद के सत्र भी जीतने का मौका मिल सके। विशेषकर, केंद्रीय बैंक सीधे तौर पर राजनीति-जनित समयसीमा के दबावों और भविष्य के लिए अनुमानित उपेक्षा के अधीन नहीं है, कारण कि यह निर्वाचित होने की बजाय नामांकित किया जाता है, केंद्रीय बैंकरों के पास निर्णय-निर्माण का क्षेत्र होता है, जो सरकारों के समय से लंबा होता है, सरकारों के कार्यकाल में चुनावी चक्र और युद्धकाल भी शामिल होते हैं। यद्यपि उन्हें स्पष्ट रूप से अपने नीति-निर्णयों के तत्काल परिणामों भुगतना होता है, जबकि केंद्रीय बैंकर थोड़ा रूकने, विचार करने और यह प्रश्न पूछने में समर्थ होते हैं कि उनके तथा सरकार की नीतियों के दीर्घावधि परिणाम क्या होंगे। वास्तव में, अपने अधिदेश से केंद्रीय बैंक कारोबार और वित्तीय चक्रों में अर्थव्यवस्था को स्थिर बनाने के लिए प्रतिबद्ध होते हैं और इसलिए वे मध्यावधि से दीर्घावधि की तरफ देखते हैं। हैरानी की बात नहीं कि केंद्रीय बैंक मुश्किल विकल्पों के जरिए विश्वसनीयता बढ़ाने का प्रयास करते हैं, जो यह प्रकट करता है कि अल्प अवधि में होने वाले इजाफे का बलिदान दीर्घावधि परिणामों यथा कीमत या वित्तीय स्थायित्व के लिए कर दिया जाए। (2) इस स्पष्टीकरण का दूसरा भाग कि केंद्रीय बैंक सरकार से अलग क्यों हैं, और इसका संबंध इस अवलोकन से है कि केंद्रीय बैंक के मुद्रा सृजन, क्रेडिट सृजन, बाह्य क्षेत्र प्रबंधन और वित्तीय स्थिरता के लिए प्रबंधन करता है या प्रभावित करता है – और इसमें अर्थव्यवस्था के लिए संभावित फ्रंट-लोडेड लाभ शामिल होते हैं किंतु वित्तीय आधिक्य या अस्थिरता के बैक-लोडेड लागतों के रूप में “पश्च-जोखिमों” की संभावना भी होती है। उदाहरण के लिए, (i) मुद्रा की अधिक आपूर्ति से वित्तीय लेनदेन में सहजता हो सकती है, जिसमें सरकार के घाटे को वित्तपोषित करना भी शामिल है, किंतु इससे अर्थव्यवस्था में यथासमय ओवर हीटिंग हो सकती है और (उच्च) मुद्रास्फीतिकारी दबाव बढ़ सकते हैं या बड़ा संकट आ सकता है, जिसमें अंततः तेज मौद्रिक संकुचन की जरूरत हो; (ii) ब्याज दरों को बहुत ज्यादा कम करने और/अथवा बैंकों के लिए पूंजी और चलनिधि अपेक्षाओं में रियायत से क्रेडिट का अधिक सृजन, आस्ति-कीमतों में बढ़ोतरी और अल्पावधि में मजबूत आर्थिक वृद्धि की प्रतीति हो सकती है, किंतु क्रेडिट की अत्यधिक वृद्धि के साथ सामान्यतया उधार देने का काम बढ़ता है और गुणवत्ता वक्र नीचे चला जाता है, जो गलत निवेश को बढ़ाता है, आस्ति-कीमतों में गिरावट लाता है और दीर्घावधि में वित्तीय संकट पैदा करता है; (iii) अर्थव्यवस्था में अधिक विदेशी पूंजी प्रवाह की अनुमति देने से अस्थायी तौर पर सरकार के बढ़ते हुए तुलनपत्र के लिए और अलग चलने वाले निजी क्षेत्र के लिए वित्तपोषण दबाव सहज हो सकते हैं, किंतु भविष्य में अचानक ही इनके बंद होने या इन प्रवाहों के बहिर्गमन से विनिमय दर नीचे गिर सकती है जिससे संपूर्ण अर्थव्यवस्था के लिए प्रतिकूल स्पिल-ओवर हो सकते हैं; और (iv) पर्यवेक्षी और विनियामकीय मानकों से समझौता करके बैंक ऋण हानियों को छुपाने से लघु अवधि में वित्तीय स्थिरता का मुखौटा पहना जा सकता है, किंतु यह संभावित रूप से करदाता के लिए बड़े बिल और संभावित आउटपुट में हानि होने के कारण भविष्य में किसी भी समय यह व्यवस्था अनिवार्य रूप से किसी भी समय ताश के पत्तों की नाजुक गड्डी की तरह बिखर सकती है। जबकि हमेशा ऐसा नहीं होता है, प्रायः स्थायी वृद्धि के लिए अपेक्षित हस्तक्षेप शुरू में राजकोषीय परिव्यय के साथ सरकार द्वारा संरचित सुधार होते हैं; तथापि इनसे लोक-लुभावने व्यय से समझौता करना पड़ सकता है या अप्रिय पदधारी की जरूरत हो सकती है। परिणामस्वरूप, यह सरकार को केंद्रीय बैंक से पूछने/कार्य देने/अधिदेश देने/निदेश देने के लिए सरकार का तीव्र समाधान प्रतीत हो सकता है, जिससे उसकी कार्यनीतियों का अनुसरण किया जाए जो लघुकालिक लाभ उत्पन्न करती हो किंतु प्रभावशाली ढंग से अर्थव्यवस्था में पश्च-जोखिम पैदा करती हैं। अर्थव्यवस्था को ऐसी लघु आवधिकता से संरक्षित करने के लिए केंद्रीय बैंक को सरकार की कार्यकारिणी शाखा से एक सुरक्षित दूरी पर रखना चाहिए। केंद्रीय बैंक की स्वतंत्रता को क्षीण करना अब, यद्यपित औपचारिक रूप से केंद्रीय बैंक सरकार से अलग संगठित किया जाता है, फिर भी, यदि सरकार चाहे तो वह अपने लघुकालिक लाभों के लिए इसके निर्णय-निर्माण के प्रभावशाली क्षेत्र को विभिन्न व्यवस्थाओं से कम कर सकती है, जिसमें अन्य के साथ-साथ निम्नलिखित शामिल है,
यदि ऐसे प्रयास सफल हो जाते हैं तो वे अर्थव्यवस्था में नीतिगत अदूरदर्शिता को बढ़ावा देते हैं जिसके कारण समष्टि-आर्थिक स्थिरता की जगह वित्तीय संकट का रूक-रूक कर आगमन होता है। इसलिए, कई कारण हैं कि क्यों केंद्रीय बैंक की स्वतंत्रता को बनाये रखना अर्थव्यवस्था के लिए समावेशी सुधार है तथा इसके विपरीत इस स्वतंत्रता का दमन करना प्रतिगामी और एक्सट्रैक्टिव है:
परिणामस्वरूप, सरकार और केंद्रीय बैंक के बीच निर्णय-निर्माण के क्षेत्र में विचलन, जिसपर मैंने प्रकाश डाला है, से किसी प्रकार की परिचालनात्मक बेमेलता को बढ़ावा न मिले जब तक इसे दोनों पार्टियों द्वारा सही ढ़ंग से समझा और स्वीकृत न किया जाए कि केवल इसी विचलन के कारण केंद्रीय बैंक औपचारिक रूप से कार्यकारिणी कार्यालय से अलग है और इसे अपने कार्य स्वतंत्र तरीके से करने हैं। केंद्रीय बैंक निस्संदेह रूप से गलतियां कर सकता है और सामान्य रूप से इसे संसदीय संवीक्षा तथा पारदर्शिता मानदंडों के जरिए सार्वजनिक रूप से जवाबदेह ठहराया जाता है। इस प्रकार, जनता के प्रति स्वतंत्रता, पारदर्शिता और जवाबदेही की संस्थागत व्यवस्था न केवल इसे संतुलित करती है बल्कि केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता को मजबूत भी बनाती है। तथापि, केंद्रीय बैंक के परिचालनात्मक अधिदेश में सरकार का प्रत्यक्ष हस्तक्षेप और दखल-अंदाजी इसकी कार्यात्मक स्वायत्तता को नकारती है। “मौत को गले लगाना”– बाज़ारों की नाराज़गी का सामना करना सरकार के दूरदर्शी नेता समष्टि-आर्थिक स्थिरता के महत्व के बारे में मतदाताओं को समझाकर लाभ उठा सकते हैं। उदाहरण के लिए, वित्तीय क्षेत्र के दीर्घकालिक स्वरूप के परिणामों को हासिल करने के लिए निर्णयन प्रक्रिया के संदर्भ में केंद्रीय बैंक स्वायत्तता को कायम रखना और उसे अपने प्रमुख कार्यों को सुचारु ढंग से करने देना। जब सतत आर्थिक समृद्धि के मुख्य तत्व के रूप में स्वतंत्र केंद्रीय बैंक के सुविचारित पहलू को नहीं देखा जाए और/ या सरकार में अदूरदर्शिता हो तो उससे केंद्रीय बैंकिंग के कार्यकलापों और निर्णयन प्रक्रिया में अड़चन पैदा हो जाएगी, जिसके कारण कई अप्रिय घटनाओं का सामना करना पड़ सकता है। जहां तक समष्टि-आर्थिक प्रबंधन का संबंध है वह स्थिरता हासिल करने और गुमराह करने के बीच रस्साकशी पैदा कर सकता है; दैनिक परिचालनगत निर्णयों से शक्ति का संघर्ष पैदा हो सकता है; तथा, विश्वसनीयता कायम रखने के नाम पर केंद्रीय बैंक पर दबाव डालकर उसे झुकने के लिए मज़बूर किए जाने से उसकी स्वतंत्रता बाधित होगी, उसकी स्वतंत्रता को छीनने के प्रयास बढ़ जाएंगे। इन घटनाओं को बाज़ार पैनी नज़र से देख रहे हैं और यदि अनिश्चितता बढ़ जाए और केंद्रीय बैंक की स्वतंत्रता और विश्वसनीयता के प्रति विश्वास घट जाए तो बाज़ार बॉण्ड प्रतिफलों को बढ़ा देंगे और विनिमय दर काफी प्रभावित हो सकती है। मैं इसे स्पष्ट करता हूं। मोटे तौर पर उन्नत अर्थव्यवस्थाएं आत्मावलंबी नहीं होती हैं; वे अपने निवेश के लिए वित्त प्राप्त करने हेतु पूंजी बाज़ारों पर निर्भर रहती हैं। यह बात विशेष रूप से सरकारों पर खरी उतरती है, जो कि सॉव्रिन (और अर्ध-सॉव्रिन) कर्ज बाज़ारों का आकार सापेक्षिक रूप से बड़ा होने, देशी मुद्रा के साथ-साथ विदेशी मुद्रा में भी मूल्यवर्गित होने के रूप में परिलक्षित होती है। जिस प्रकार मुद्रास्फीति या वित्तीय अस्थिरता जैसे दीर्घकालिक जोखिम बढ़ते हैं, बाज़ार उसके अनुरूप सॉव्रिन कर्ज के मूल्य में बदलाव करते हैं और समूचे रूप से वित्तपोषण करना बंद कर देते हैं। इससे विदेशी मुद्रा जैसे अन्य बाज़ारों और विदेशी निवेशों पर भी तत्काल प्रभाव पड़ता है, साथ ही, अर्थव्यवस्था की बाह्य क्षेत्रगत स्थिरता भी जोखिमग्रस्त हो जाती है। अत: सरकार और केंद्रीय बैंक (आम तौर पर विनियामक संस्थाएं) के बीच एक तीसरे खिलाड़ी – अर्थात् बाज़ार – की उपस्थिति एक महत्वपूर्ण फीडबैक व्यवस्था है। बाज़ार सरकार को केंद्रीय बैंक की स्वतंत्रता को छीनने से रोककर अनुशासनबद्ध करा सकता है और वह सरकार को इस अत्याचार के लिए कीमत चुकाने के लिए मज़बूर कर सकता है। मजे की बात है कि बाज़ार केंद्रीय बैंक को उस स्थिति में जवाबदेह और स्वतंत्र रहने के लिए विवश भी करेगा जब वह सरकार के दबाव में आ जाए।5 वर्ष 2010 की अर्जेंटिना की घटना, जिसका उल्लेख मैंने अपनी प्रारंभिक टिप्पणी में किया था, के दौरान बाज़ार विद्रोह और अवक्षेप के अलावा ध्यान देने योग्य बात यह है कि इस वर्ष में हुए उभरते बाज़ार सॉवरेन बॉण्ड और मुद्रा के मूल्यह्रास को इस अवधारणा, कि सरकार केंद्रीय बैंक की मौद्रिक नीति को प्रभावित कर रही है, ने अंजाम दिया, जिसके अंतर्गत सरकार द्वारा केंद्रीय बैंक की निर्णयन-प्रक्रिया को अपने काबू में लाने की इच्छा समय-समय पर जनता के समक्ष जाहिर करना भी शामिल है। एक ओर बढ़ती मुद्रास्फीति के मद्देनज़र दर में की गई कटौती और बढ़ते राजकोषीय घाटे ने नुकसान पहुंचाया; वहीं दूसरी ओर सरकार जनता के समक्ष ऐसे समय में यह घोषणा कर रही थी ब्याज दर बढ़ाने पर क्या-क्या “खतरे” पैदा हो सकते हैं, जब मुद्रास्फीति दो अंकों पर पहुंच चुकी थी। वस्तुत: बाज़ार की नापसंदगी उभरते बाज़ारों तक ही सीमित रखने की जरूरत नहीं है। विश्व की सबसे बड़ी कर-छूट वाली अर्थव्यवस्था में मौद्रिक सख्ती को लेकर सरकार द्वारा जनता के समक्ष ऐसे समय में, जब मुद्रास्फीति और राजकोषीय घाटा बढ़ रहे हों, घबड़ाहट और मायूसी जाहिर किए जाने से निवेशकों के मन में यह विचार पैदा हो गया कि उसकी रिज़र्व मुद्रा की स्थिति को अब कम नहीं आंका जा सकता (अ डिबेट अबाउट सेन्ट्रल-बैंक इंडिपेंडेंस इज़ ओवरड्यू, द इकोनॉमिस्ट, 20 अक्तूबर 2018)। यूनिवर्सिटी ऑफ कलिर्फोनिया, बर्कले में अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर बैरी आइशेनग्रीन ने बाज़ार की इस आलोचनापरक फीडबैक भूमिका को अपने लेख (2018) में बेहतरीन ढंग से निम्नानुसार कवर किया है : “कई देशों ने यह उचित समझा है कि मौद्रिक नीति के संबंध में निर्णय लेने का कार्य विशेषज्ञता की दृष्टि से नियुक्त तकनीविदों को सौंपा जाए। वे दूरगामी विचार प्रकट कर सकते हैं। वे अल्पकालिक फायदों के लिए मौद्रिक परिस्थितियों में फेरबदल करने के लालच को रोक सकते हैं। इतिहास बताता है कि दीर्घकालिक स्थिरता को प्राथमिकता देना आर्थिक कार्यनिष्पादन के लिए सकारात्मक होता है। इसी को ध्यान में रखते हुए निर्वाचित नेताओं को देखा जाता है कि वे सही हैं या गलत। विचारशील राजनीतिज्ञ इसे भली-भांति समझते हैं। वे केंद्रीय बैंक की स्वतंत्रता के पक्ष में रहते हैं और केंद्रीय बैंक के निर्णयों को प्रभावित करने के विचार को नामंजूर करते हैं। दुर्भाग्यवश सभी राजनीतिज्ञ विचारशील नहीं होते हैं। कुछ लोगों में दीर्घकालिक लाभों को पाने का धैर्य नहीं होता। कुछ लोगों को यह बात अच्छी नहीं लगती जब उनके द्वारा नियुक्त व्यक्ति उनकी इच्छा के अनुसार झुकते नहीं। कई लोग परंपरागत संस्थाओं और परिपाटियों को सम्मानपूर्वक नहीं देखते, चाहे वह केंद्रीय बैंक की स्वतंत्रता हो या फिर आम तौर पर शक्तियों का प्रत्यायोजन हो। लेकिन प्रश्न यह है कि क्या वे बाज़ारों पर ध्यान देते भी हैं।” बैरी आइशेनग्रीन ने कुशाग्रता से यह उल्लेख किया है कि यदि सरकार बाज़ारों पर अपना ध्यान देना चाहे तो वह इस बात से सहमत होगी कि केंद्रीय बैंक की स्वतंत्रता उसका अपना बल है और केंद्रीय बैंक, एक सच्चे मित्र होने के नाते कई अरुचिकर बातें तो कहेगा लेकिन वे सच्चे दिल से कही हुई होती हैं और उसकी बातें सरकार की नीतियों पर दीर्घकालिक प्रतिकूल परिणामों को रोकने के लिए होती हैं। अब मैं यह बताता हूं कि इन बातों का रिज़र्व बैंक से क्या संबंध है। दिवंगत दीना खटखटे ने रिज़र्व बैंक का मूल्यांकन निपुणता व विद्वत्तापूर्वक ढंग से प्रस्तुत किया है : अ स्टडी इन द सेपरेशन एंड अट्रीशन ऑफ पावर्स (2005)। नीचे दी गई चर्चा की मदें काफी हद तक उनके मूल्यांकन पर आधारित हैं और बाद में उन्हें अद्यतित भी किया गया है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता और स्वतंत्रता पर की गई बेहतरीन चर्चाएं रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नरों, डॉ. सी. रंगराजन (1993) और डॉ. वाई.वी. रेड्डी (2001, 2007) के व्याख्यानों में शामिल हैं। आगे हम यह देखेंगे कि अन्य गवर्नरों और उप गवर्नरों ने भी अपने कार्यकाल में इस चिरकालीन विषयवस्तु पर विचारविमर्श किया है। उनमें से कई लोग ऐसे समय में भी इस बात का निजी रूप से समर्थन करते थे, जब रिज़र्व बैंक की स्वतंत्रता को लेकर कोई कानूनी स्पष्टता नहीं थी, वहीं अन्य लोगों का मानना था कि रिज़र्व बैंक की स्वतंत्रता एक प्रक्रियाधीन मामला है, लंबे अरसे की एक चुनौती है जिसका देश चिरकालीन आधार पर सामना कर रहा है। भारतीय रिज़र्व बैंक की स्वतंत्रता बहाली में सतत प्रगति रिज़र्व बैंक को हमेशा बहुत सी महत्वपूर्ण शक्तियां भारतीय रिज़र्व बैंक अधिनियम, 1935 एवं बैंककारी विनियमन अधिनियम, 1949 से प्राप्त होती रही हैं, किंतु मतलब की बात यह है कि व्यवहार में इन शक्तियों का इस्तेमाल कर पाने की वास्तविक स्वतंत्रता कितनी है। रिज़र्व बैंक की परिचालनात्मक स्वतंत्रता की बहाली हेतु केंद्रीय बैंक, बहुत से अर्थशास्त्रियों और अनेक समितियों की रिपोर्टों के आग्रह पर समय-समय पर, उत्तरोत्तर सरकारों ने केंद्रीय बैंक के अधिकारों में बहुत वृद्धि की है। मैं इस क्षेत्र में हुई प्रगति से संबंधित तीन क्षेत्रों की संक्षेप में चर्चा करूंगा। 1. मौद्रिक नीति: बहुत से समकालीन केंद्रीय बैंकों की भांति रिज़र्व बैंक भी स्वतंत्रोत्तर सरकार की समाजवादी योजना तैयार करने संबंधी नीतियों के चक्कर में पड़ गया। रिज़र्व बैंक न सिर्फ मुद्रा से संबंधित ब्याज दर निर्धारित करता, बल्कि व्यवहार में यह भिन्न परिपक्वता अवधि वाले ऋणों की दर निर्धारित करने के साथ ही साथ वास्तविक अर्थव्यवस्था को किए जाने वाले क्षेत्रगत ऋण वितरण का कार्य भी करने लगा। 1990 के दशक में ब्याज दर को नियंत्रण-मुक्त किए जाने के बाद, मौद्रिक नीति को अत्याधुनिक आयाम प्राप्त हुए। शुरुआत के तौर पर, ब्याज दरों के निर्धारण के लिए “बहु-सूचकों” वाला एक उपागम आया। मौद्रिक नीति के बहुत से लक्ष्य निर्धारित किए जाने से टिनबर्ग के “एक लक्ष्य, एक लिखत” के सिद्धांत का उल्लंघन होता है। ऐसा होने से यह समझने या बताने में भी मुश्किल होती है कि किसी दिए गए समय पर ब्याज दर निर्धारण के माध्यम से किस लक्ष्य को हासिल करने का प्रयास किया जा रहा है। महत्वपूर्ण बात है कि इस उपागम के तहत अक्सर किसी व्यक्ति विशेष, नामत: रिज़र्व बैंक के गवर्नर के स्तर पर बहुत अधिक विनियामकीय विवेक केंद्रित था। ऐसा होने के कारण मौद्रिक नीति की स्वतंत्रता व्यक्ति-विशेष पर आश्रित हो गई। दूसरे शब्दों में, ऐसा होने पर राजकोषीय विस्तार के समय सरकार द्वारा एक या अन्य रूप में दरें निम्न स्तर पर रखने के संबंध में दबाव डालना आसान था। वास्तव में यही वह हालात हैं, जहां पर विवेक की तुलना में नियम बेहतर साबित होंगे। ऐसा विशेष रूप से समय-भिन्नता को टालने के लिए, जिसे 1970 के दशक में तथा 1980 के दशक की शुरुआत में नोबल पुरस्कार विजेता फिन कीडलैंड तथा एडवर्ड प्रेस्कॉट के कार्य में भी दर्शाया गया है। कीडलैंड तथा प्रेस्कॉट (1977) का मानना है कि निवेशकों सहित लोग भविष्य का अंदाजा लगा सकते हैं और स्वकेंद्रित सरकारों के बर्ताव का पूर्वानुमान लगा सकते हैं और इसलिए विवेक-सम्मत मौद्रिक नीति में सरकारी दबावों के कारण समझौता करना पड़ सकता है, जो स्फीतिकारी प्रत्याशाओं को अनियंत्रित छोड़ सकती है, जबकि नियम के प्रति प्रतिबद्ध रहने वाली मौद्रिक नीति को प्रभावित करना मुश्किल होगा और ऐसी नीति स्फीतिकारी प्रत्याशाओं को नियंत्रण में रखेगी।6 मुद्रास्फीति के द्विअंकीय रहने की कतिपय सांयोगिक घटनाओं के बाद मुद्रास्फीति और स्फीतिकारी प्रत्याशाओं के विरुद्ध कार्रवाई अंतत: सितंबर 2013 में तत्कालीन गवर्नर रघुराम जी. राजन द्वारा शुरू की गई। मौद्रिक नीति ढांचे के पुनरीक्षण और उसे मजबूत बनाने हेतु ऊर्जित पटेल समिति की रिपोर्ट 2014 में जारी की गई; और अंतत: मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) के गठन हेतु अगस्त 2016 में भारतीय रिज़र्व बैंक अधिनियम में संशोधन किया गया। एमपीसी में गवर्नर सहित भारतीय रिज़र्व बैंक के तीन सदस्य और तीन बाहरी सदस्य होते हैं, जिनकी नियुक्ति सरकार करती है। समिति में गवर्नर का मत निर्णायक होता है। एमपीसी को विधायिका द्वारा वृद्धि पर ध्यान केंद्रित करते हुए मध्यावधि में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) आधारित मुद्रास्फीति के 4% के लचीले लक्ष्य को हासिल करने का अधिदेश दिया गया है। यह लक्ष्य हासिल करने के लिए परिचालनात्मक स्वतंत्रता प्रदान की गई है और संकल्प के बारे में एमपीसी की जवाबदेही सहित पारदर्शिता लाने हेतु समिति की बैठकों के कार्यवृत्त तैयार किए जाते हैं जिसमें समिति के प्रत्येक सदस्य के निर्णय का सारांश दिया जाता है, द्विमासिक मौद्रिक नीति रिपोर्ट तैयार की जाती है, और तीन निरंतर तिमाहियों में मुद्रास्फीति के लक्षित स्तर में +/- 2% से अधिक का अंतर आने पर सरकार को लिखित रिपोर्ट भेजी जाती है। एमपीसी, जिसे अस्तित्व में आए अभी दो वर्ष हुए हैं, ने अपने दर-निर्धारित करने संबंधी निणर्यों के माध्यम से मुद्रास्फीति लक्ष्यों की विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए निरंतर प्रयास किये हैं। समिति की निर्णय प्रक्रिया पर आमतौर पर भरोसा किया जाता है और इसका आनुभविक ढंग से दस्तावेजीकरण किया जाता है, ताकि दीर्घावधिक बॉन्ड प्रतिलाभों में कमी किए जाने के साथ ही साथ विनिमय दर को भी स्थिर किए जाने में मदद की जा सके। हालांकि लचीले मुद्रास्फीति लक्ष्य ढांचे के आर्थिक प्रभावों के संबंध में निर्णायक मंडल थोड़े समय के लिए मौन रहेगा किंतु यह निर्विवाद है कि एमपीसी ने मौद्रिक नीति को स्वतंत्र संस्थागत आधार प्रदान किया है। केंद्रीय बैंक की स्वतंत्रता के इस पहलू को मजबूत बनाने के संबंध में अपेक्षित परिवर्तनों का विधान करते हुए मौद्रिक निर्णय लेने (एमपीसी में बाहरी सदस्यों की नियुक्ति के माध्यम के अलावा) की प्रक्रिया से खुद को दूर रखने की दूरदर्शिता का श्रेय सरकार को दिया जाना चाहिए। (2) ऋण प्रबंधन: आजादी के बाद कई दशकों से, सरकार के राजकोषीय घाटे को वित्तपोषित करने के लिए रिज़र्व बैंक ने भारत सरकार के लघुकालिक खज़ाना बिलों के निर्गम (असाधारण रूप से कम ब्याज दरों पर) में सहभागिता की है। रिज़र्व बैंक ने भी सार्वजनिक रूप से माना है कि उसके खुला बाजार परिचालन मुख्य रूप से सरकारी बॉन्ड प्रतिफलों को संभालने के लिए डिज़ाइन किए गए हैं। इसका अभिप्रायः है कि केंद्रीय बैंक का तुलन पत्र हमेशा से ही कर-प्राप्तियां जैसे संसाधन के रूप में उपलब्ध रहा है-सरकार के अधिक व्यय को मुद्रीकृत करने के लिए तैयार रहा है। इसमें हैरानी नहीं कि मिल्टन फ्रेडमैन और थॉमस सारजेन्ट को प्रसन्न रखने के लिए भारत में उच्च मुद्रास्फीति डिजाइन की गई अर्थात यह हमेशा से ही मौद्रिक और राजकोषीय घटनाक्रम रहा है क्योंकि अर्थशास्त्र के इन दोनों नोबल पुरस्कार विजेताओं ने क्रमशः इसका तर्क दिया था (फ्रेडमैन, 1970 और सारजेंट, 1982)। अंततः राजकोषीय अविवेक और सरकार के घाटे के इस प्रकार के स्वचालित मुद्रीकरण से होने वाले मुद्रास्फीतिकारी जोखिमों को देखते हुए, 1994-1997 के दौरान रिज़र्व बैंक और सरकार के बीच संयुक्त प्रयासों ने रिज़र्व बैंक से निर्धारित उच्चतम सीमा वाले अर्थोपाय अग्रिमों (डब्ल्यूएमए) में घाटे के वित्तपोषण को सीमित कर दिया। राजकोषीय उत्तरदायित्व और बज़ट प्रबंधन (एफआरबीएम) अधिनियम, 2003 में स्पष्ट रूप से रिज़र्व बैंक पर सरकारी प्रतिभूतियों के प्राथमिक निर्गमों में भागीदारी करने पर रोक लगाई गई। खुला बाजार परिचालनों को इस तरह से डिज़ाइन किया गया कि विदेशी मुद्रा हस्तक्षेपों के घरेलू मुद्रा आपूर्ति पर प्रभाव को निष्फल किया जा सके और/अथवा अर्थव्यवस्था की टिकाऊ चलनिधि की आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके, न कि घाटे का वित्तपोषण किया जाए। जबकि पुरानी आदतों में पुनरावर्तन हुआ है, समग्र रूप से इन बदलावों ने राजकोषीय आयोजना तथा अधिक महत्वपूर्ण रूप से सरकार के वित्तपोषण में जटिल सहभागिता करने की बजाय मुख्य रूप से सरकार के ऋण की नीलामी करने और प्रतिभूतियों के बीच इसे स्विच करने तथा पुनर्खरीद आयोजित करने में मदद करने का कार्य रिज़र्व बैंक के पास छोड़ दिया है। इसके अलावा, सांविधिक चलनिधि अनुपात (एसएलआर) एवं आरक्षित नकदी निधि अनुपात (सीआरआर) के दबावपूर्ण स्तरों, जो बैंक जमाराशियों का बड़ा हिस्सा सरकार को उपलब्ध होना सुनिश्चित करते थे या मौद्रिक विस्तार के माध्यम से मूल्य में कमी किए जाने हेतु तत्काल उपलब्ध होते थे, को अब अधिक युक्तिसंगत बनाते हुए अंतरराष्ट्रीय विवेकपूर्ण मानदंडों के लगभग अनुरूप बना दिया गया है। उदाहरण के लिए, एसएलआर के स्तर में निरंतर कमी की जाती रही है और इसे बासेल ।।। के चलनिधि कवरेज अनुपात (एलसीआर) के संगत बनाए जाने की योजना है। (3) विदेशी मुद्रा विनिमय दर प्रबंध: आजादी के बाद पंचवर्षीय योजनाओं में विदेशी मुद्रा विनिमय दर सहित मूल्यों को सतत रहने का अनुमान लगाया गया था, फिर भी चूंकि बाजार मूल्यों और समष्टि-आर्थिक स्थितियों के साथ रुपये के वास्तविक मूल्य में उतार-चढ़ाव आया, स्टर्लिंग धारिताओं पर अनुचित प्रभाव के सिवाय कोई दूसरा विकल्प नहीं था। रुपये का अंतर्निहित वास्तविक मूल्य भी बहुत अधिक प्रभावित हुआ, किंतु मौद्रिक नीति और ऋण प्रबंध परिचालनों में यह वास्तव में दिखाई नहीं दिया जो परोक्ष रूप से सरकारी घाटे के बढ़ने में समर्थन दे रहे थे। ‘राजकोषीय प्रभाव’ के बीच स्थायी विनिमय दर व्यवस्था का परिणाम था कि रिज़र्व बैंक अपरिहार्य विनिमय दर असंतुलन (हालांकि शायद यह इस समय विश्व के अधिकांश भाग में सत्य है) के निर्माण में अनिवार्य रूप से मूक दर्शक बना रहा। सन 1976 से, जब रुपये का स्तर मुद्राओं के बास्केट के प्रति ‘मैनेज्ड फ्लोट’ में चला गया और विशेषकर सन 1993 से, विनिमय दर सभी व्यवहारिक उद्देश्यों के लिए धीरे-धीरे स्थायी दर से बाजार निर्धारित दर में विकसित हो गई। रिज़र्व बैंक अधिक बड़ी गतिविधियों को संभालने के लिए विदेशी पूंजीगत प्रवाहों पर आरक्षित निधि प्रबंधन और समष्टि आर्थिक नियंत्रण लगाता है। ब्याज दर नीति के लिए लचीली मुद्रास्फीति-लक्ष्य निर्धारण अधिदेश के साथ और राजकोषीय घाटे का वित्तपोषण मौद्रिक परिचालनों का उद्देश्य न रहने के साथ ही वांछित विनिमय दर प्रबंधन का कार्य रिज़र्व बैंक के पास है। भारतीय रिज़र्व बैंक की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए वर्तमान चुनौतियां हालांकि, दृढ़ संग्रह के कुछ महत्वपूर्ण घटक कमजोर हुए हैं, परंतु रिज़र्व बैंक की स्वतंत्रता यथावत है। इनमें से कुछ क्षेत्रों को अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) और विश्व बैंक द्वारा भारतीय रिजर्व बैंक की स्वतंत्रता को मजबूत करने के तरीकों के रूप में भारत के 'वित्तीय क्षेत्र आकलन कार्यक्रम 2017 (एफएसएपी)' में भी पहचाना गया था, जिसमें से एक एफएसएपी द्वारा भारत को "भौतिक रूप से गैर-अनुपालित" रूप में मूल्यांकित किया गया था। (1) सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का विनियमन: एक महत्वपूर्ण बाधा यह है कि रिज़र्व बैंक, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (पीएसबी) के विरुद्ध पूर्ण कार्रवाई, जैसे परिसंपत्ति वितरण, प्रबंधन और बोर्ड के प्रतिस्थापन, लाइसेंस निरसन और संकल्प कार्य अर्थात विलय या बिक्री (निजी बैंकों के मामले में रिज़र्व बैंक द्वारा ये सभी कार्य आसानी से और प्रभावी ढंग से किए जा सकते हैं) करने में संवैधानिक रूप से सीमित दायरे में है। मार्च 2018 में गवर्नर, श्री पटेल के भाषण “बैंकिंग विनियामकीय शक्तियाँ स्वामित्व निरपेक्ष होनी चाहिए” में इस सीमा के महत्वपूर्ण प्रभावों को विस्तार से उजागर किया गया था। जिसमें एफएसएपी की बात को दोहराते हुए (जिम्मेदारियों, उद्देश्यों, अधिकारों, स्वतंत्रता और उत्तरदायित्वों को सारांशित करने में बेसल कोर सिद्धांत, पैरा 39, विस्तृत आकलन रिपोर्ट) कहा गया था कि : "आरबीआई को वर्तमान में निजी क्षेत्र के बैंकों हेतु दिए गए अधिकारों, विशेष रूप से बोर्ड के सदस्य की बर्खास्तगी, विलय और लाइसेंस निरसन के साथ जब आरबीआई लाइसेंस रद्द करे तो उस हेतु सरकार के समक्ष अपील करने के विकल्प को भी हटाने हेतु, को पीएसबी पर लागू करने के लिए कानून में संशोधन किया जाना चाहिए। यदि सांविधिक परिवर्तन कठिन हैं, तो आरबीआई और सरकार को एक ढांचागत समझौते को अपनाने पर विचार करना चाहिए जिसमें सरकार आरबीआई के पूर्ण परिचालन प्राधिकरण और पर्यवेक्षण और विनियमन में स्वतंत्रता को स्वीकार करेगी, जैसा कि उन्होंने हाल ही में मौद्रिक नीति के लिए किया था।" (2) रिज़र्व बैंक के तुलनपत्र की मजबूती: केंद्रीय बैंक परिचालन से उत्पन्न होने वाले किसी भी नुकसान को वहन करने के लिए पर्याप्त रिज़र्व होने और लाभ आवंटित करने के लिए उचित नियम (पूंजी और भंडार के संचय को नियंत्रित करने वाले नियमों सहित) को सरकार की और से, (उदाहरण के लिए, मोज़र-बोहेम, 2006) देखें, केंद्रीय बैंक की स्वतंत्रता का एक महत्वपूर्ण हिस्सा माना जाता है। इस विषय पर रिज़र्व बैंक का सरकार के साथ चल रहा एक जटिल मामला (कोजेनसीस, 2018, "सरकार द्वारा आरबीआई के 3.6 ट्रिलियन रुपये को अतिरिक्त पूंजी के रूप में पहचानना एवं उसे अधिशेष के रूप में मांगना) रिज़र्व बैंक से अधिशेष को सरकार को अंतरित करने से संबंधित नियम है जो मेरी प्रारंभिक टिप्पणियों में उल्लेखित अग्रणी अर्जेंटीना उदाहरण के बहुत करीब है। रिज़र्व बैंक पर हाल के अपने लेख, शीर्षक आरबीआई के तुलन-पत्र की रक्षा, की तीसरी शृंखला में राकेश मोहन (2018) ने स्पष्ट उल्लेख किया है कि क्यों एक केंद्रीय बैंक को अर्थव्यवस्था के महत्वपूर्ण कार्यों को पूरा करने के लिए एक मजबूत बैलेंस शीट की आवश्यकता है। मैं उनकी मुख्य बातों का उल्लेख निम्नानुसार करता हूँ : "सर्वप्रथम, ... यदि सरकार ने व्यय को वित्त पोषित करने के लिए आज नई प्रतिभूतियां जारी की तो उसके दीर्घकालिक राजकोषीय परिणाम समान होंगे। [आर] आरबीआई की पूँजी सरकार के लिए लंबी अवधि हेतु निवल आधार पर किसी नए राजस्व का निर्माण नहीं करेगी बल्कि यह केवल अल्प अवधि हेतु मुक्त निधि के रूप में भ्रम का सृजन करेगी।" "दूसरा, ... ऐसे अंतरण का उपयोग, राजकोषीय विवेक पर सरकार के इरादों में जो भी आत्मविश्वास मौजूद है, उसे कम कर देगा।" "तीसरा, ... सैद्धांतिक रूप में, एक केंद्रीय बैंक शून्य से नीचे के स्तर सहित पूंजी स्तर की एक विस्तृत शृंखला के साथ उचित मौद्रिक नीति लागू कर सकता है। व्यावहारिक रूप से, खतरा यह है कि यह वित्तीय बाजारों और जनता के मध्य विश्वसनीयता को खो सकता है, और उसके बाद अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में असमर्थ हो सकता है यदि इसमें पर्याप्त नुकसान होता है तथा अपर्याप्त पूंजी के रूप में देखा जाता है। संभावित केंद्रीय बैंक घाटे के संबंध में भय भ्रामक है? अंतर्राष्ट्रीय निपटान बैंक (बीआईएस) के अनुसार, 108 केंद्रीय बैंकों में से 43 ने 1984 और 2005 के बीच कम से कम एक वर्ष के लिए घाटे की सूचना दी है। कुछ लोगों ने यह भी तर्क दिया है कि जब भी आवश्यक हो तो सरकार हमेशा केंद्रीय बैंक को पुन र्पूंजीकरण कर सकती है। यह सैद्धांतिक रूप में निश्चित तौर पर सही है परंतु जब सरकार स्वयं राजकोषीय दबाव से घिरी हो और अपेक्षाकृत उच्च ऋण-जीडीपी अनुपात में उलझी हो, जैसा कि भारत के मामले में है, तो यह व्यावहारिक रूप से मुश्किल है। यह भी महत्वपूर्ण है कि केंद्रीय बैंक की स्वतंत्रता का क्षरण वास्तविकता में और संभवतः, अधिक महत्वपूर्ण रूप से, दूर-दृष्टिपरक नहीं है। ... एक बार फिर, बेहतर भावना परिलक्षित हुई है और सरकार ने आरबीआई के बैलेंस शीट पर धावा नहीं किया है।" (3) विनियामक दायरा: अंतिम मुद्दों में से एक मुद्दा ‘विनियामक दायरा’ भी है, अभी हाल ही में एक अलग भुगतान विनियामक की स्थापना करके भुगतान और निपटान प्रणाली पर केंद्रीय बैंक की शक्तियों को बाईपास करने की सिफारिश (जिसे राकेश मोहन द्वारा उनकी शृंखला में भी कवर किया गया है, आईबीआईडी), संबंधी मामला है। रिज़र्व बैंक ने इस सिफारिश के विरुद्ध अपनी असहमति व्यक्त करते हुए 19 अक्टूबर 2018 को एक नोट प्रकाशित किया है। निष्कर्ष मैं आगे की निहित संभावनाओं के साथ कृतज्ञता और समर्पण के साथ अपना निष्कर्ष प्रस्तुत करना चाहूँगा। श्री मालेगाम भारतीय रिजर्व बैंक के बोर्ड सदस्य होने के साथ-साथ लंबे समय से इसके सलाहकार, मित्र और शुभचिंतक रहे हैं। वह एक ऐसे व्यक्ति हैं, जिनकी मैं व्यक्तिगत रूप से उनकी विद्वता, सोच में स्पष्टता और बुद्धिमता के लिए सराहना करता हूं। श्रीमान मालेगाम, मैं आपको इस साल के लिए ए डी श्रॉफ स्मारक व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित करने के लिए धन्यवाद देता हूं। स्वर्गीय अर्दशीर दरबशा श्राफ ने युद्ध के बाद 1944 में वित्तीय और मौद्रिक व्यवस्था पर संयुक्त राष्ट्र "ब्रेटन वुड्स सम्मेलन" में भारत के गैर-अधिकारिक प्रतिनिधि के रूप में अपनी सेवाएं दीं। उनकी प्राथमिक चिंताओं में से एक अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक के कार्यकारी बोर्ड में स्थायी जगह तलाशना था, जो दुर्भाग्य से पूरा नहीं हो सका था। मेंरे लिए, उनका सबसे महत्वपूर्ण योगदान 1954 में उनके द्वारा फ्री फोरम एंटरप्राइज़ थिंकटैंक का सह-संस्थापन था, जिसने खुले संवाद के माध्यम से समाजवादी प्रवृत्तियों के प्रति एक प्रति विमर्श प्रस्तुत किया जो कि स्वातंत्रोत्तर युग की सरकार के बाद देश में अपनी जड़ें मजबूत कर रहा था। सुचेता दलाल की जीवनी, ए डी श्रॉफ – टाइटन ऑफ फाइनेंस एंड फ्री एंटरप्राइज (2000), यह उल्लेख करता है कि विश्व बैंक के सबसे लोकप्रिय राष्ट्रपतियों में से एक जॉर्जवुड्स ने उनसे कहा था : "कोई भी अपने विचारों को छिपाने के ए डी श्रॉफ पर आरोप नहीं लगा सकता था और उनके जीवन के बाद के वर्षों में, शायद ही कभी उन विचारों को भारत में कभी फैशनेबल माना जाता था। फिर भी कुछ देशभक्तों ने भारतीय राष्ट्र के लिए मित्र बनाने और उस देश में उन लोगों के बीच विश्वास पैदा किया जिनका कार्य दुनिया भर में अच्छे निवेश के अवसरों के लिए पूंजी प्रदान करना है।" पूरी विनम्रता के साथ "अपने देश के कल्याण को बढ़ावा देने की कोशिश करने के एकमात्र उद्देश्य से कार्य करने" के मन्तव्य के साथ ए डी श्रॉफ की नीतियों की आलोचना करने की आजादी (रिजर्व बैंक के पहले गवर्नर सर ओसबोर्न स्मिथ को लिखे गए पत्र से), का अनुकरण करने के लिए मैंने आज का अवसर चुना जो विनियामक संस्थाओं, विशेष रूप से, एक केंद्रीय बैंक की स्वतंत्रता के महत्व के बारे में है, जो राज्य की अति-आग्रही पहुंच से स्वतंत्र होने के विषय में है। यह विषय निश्चित रूप से अत्यधिक संवेदनशील विषयों में से एक है, लेकिन मेरा मानना है कि यह हमारे आर्थिक परिप्रेक्ष्य के लिए भी और अधिक महत्वपूर्ण है। मैं ईमानदारी से आशा करता हूं कि स्वतंत्र आर्थिक संवाद और नीति नियमन की उनकी अमर विरासत के साथ मैंने कुछ न्याय किया है। इस प्रक्रिया में, मैंने आपको यह विश्वास दिलाने का प्रयास किया है कि हमने रिज़र्व बैंक की स्वतंत्रता अर्जित करने में अच्छी प्रगति की है, विशेष रूप से मौद्रिक नीति ढांचे में (परिवर्तन, जिसमें दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता और वस्तु एवं सेवाकर को ग्यारह महीने पहले की भारत की संप्रभु रेटिंग को अपग्रेड करने में मूडी द्वारा महत्वपूर्ण संरचनात्मक सुधारों के रूप में, माना गया था)। अधिक वित्तीय और व्यापक आर्थिक स्थिरता को सुरक्षित करने के लिए, इन प्रयासों को रिजर्व बैंक के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों, इसके तुलन-पत्र की सुदृढ़ता और इसके नियामक दायरे पर नियामक और पर्यवेक्षी शक्तियों में प्रभावी स्वतंत्रता के लिए विस्तारित करने की आवश्यकता है। ऐसा प्रयास भारतीय अर्थव्यवस्था के भविष्य के लिए एक वास्तविक समावेशी सुधार होगा। सौभाग्य से यह केवल सही विकल्प निर्मित करने का मामला है, जिसे मैं मानता हूं, कि एक समाज के रूप में हम पर्याप्त रूप से विचारशील "क्या-होगा यदि" के विश्लेषण के साथ कर सकते हैं; मैंने केंद्रीय बैंकों की स्वतंत्रता को क्षीण करने से देशों के बहुत बड़े जोखिम के परिदृश्यका खांका खींचा है, जिसे वर्तमान में विश्व के अनेक देशों द्वारा देखा जा रहा है। अपनी उत्कृष्ट जीवनी में, वोल्कर: द ट्राइम्फ ऑफ पर्सिस्टेंस (2012), में मेरे पूर्व एनवाई यूस्टर्न सहयोगी, बिलसिल्बर ने विस्तार से बताया है कि किस प्रकार से 1980 के दशक में तत्कालीन फेडरल रिजर्व के गवर्नर पॉलवोल्कर ने मुद्रास्फीति को लक्षित करने के लिए ब्याज दरों को निर्धारित करने के लिए एक कठोर दृष्टिकोण अपनाया। दरों को कम रखने के लिए किसी भी और सभी दबावों प्रतिरोध करने के अतिरिक्त, जिससे राष्ट्रपति रीगन के विस्तारकारी घाटे-आधारित घोषणापत्र के अल्पावधि में –सस्ते वित्तपोषण को प्रभावी ढंग से अनुमति दे सकता था, वोल्कर ने राष्ट्रपति के साथ व्यक्तिगत रूप से मिलकर उच्च राजकोषीय घाटे को चलाने के खतरे को व्यक्त किया और ठीक उसके बाद यह सिर्फ दो अंकों की मुद्रास्फीति में तबदील हो गई थी। अंत में, वोल्कर ने दिन अपने नाम किया क्योंकि बुद्धिमता से युक्त परामर्श की जीत हुई, घाटे में सुधार हुआ, और मुद्रास्फीति और भी कम हो गई। मैं तर्क दूंगा कि मुद्रास्फीति पर वोल्कर के कठिन रुख और सरकार की राजकोषीय योजनाओं के जोखिम पर स्पष्टवादिता से, फेडरल रिजर्व की संस्था वास्तव में राष्ट्रपति रीगन के सच्चे दोस्त के रूप में हो गई। आज, विश्व के कई हिस्सों में केंद्रीय बैंक की स्वतंत्रता के लिए सरकार के अधिक सम्मान की प्रतीक्षा हो रही है, स्वतंत्र केंद्रीय बैंकर अडिग रहेंगे। सरकारें जो केंद्रीय बैंक की स्वतंत्रता का सम्मान नहीं करती हैं, को अंततः वित्तीय बाजारों के नाराजगी मोल लेनी पड़ेगी, आर्थिक अग्नि जलेगी और उन्हें अफसोस होगा जिस दिन महत्वपूर्ण विनियामकीय संस्था को दबाया जाएगा, उनके बुद्धिमान प्रतिपक्ष जो केंद्रीय बैंक की स्वतंत्रता में निवेश करते हैं, उधार की कम कीमतों, अंतरराष्ट्रीय निवेशकों के प्यार और लंबे जीवनकाल का आनन्द लेंगे। आज दुनिया के कई हिस्सों में केंद्रीय बैंक आजादी के लिए सरकार द्वारा अधिक सम्मान दिए जाने की अपेक्षा में हैं, और इस समय स्वतंत्र केंद्रीय बैंकरों को अडिग रहना होगा। सरकारें जो केंद्रीय बैंक की आजादी का सम्मान नहीं करती हैं, उन्हें जल्द ही या बाद में संदर्भ एसे मोग्लू, डेरॉन और जेम्स रॉबिन्सन (2012) वाय नेशन्स फेल: द अरिजीन ऑफ पॉवर, प्रोस्परिटी एण्ड पॉवर्टी, क्रॉउन बिजनेस। आचार्य, विरल वी. 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